परछाई मेरी साथिन है।
गम मे, खुशी में ।
हर वक्त साथ चलती है ।

मेरा हाथ पकड़कर, आश्वासन देती है
कमसकम एक तो पक्की सहेली है ।

अधूरेपन का सबब पनही पूछती।
हार में भी जीतने की चाह जगाती ।
पर, किसी के आने से।
दुबककर छुप जाती।

क्या यह मेरी कटुता नही।
जो मुझसे दुर्व्यवहार कराये?
कितनी नाशुक्र हो गई हूँ ।
परछाई से मुंह मोड़, बस आगे बड़ते गई ?

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